जैनधर्म (Jainism)

जैन शब्द जिन् से बना हुआ है जिसका अर्थ है इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला। जैन धर्म के आदि प्रवर्तक ऋषभदेव थे। इनका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अर्थात् जैन धर्म लगभग 1500 ई.पू. का है। इसकी प्राचीनता ऋग्वैदिककालीन है।
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थकर हुए, ऋषभ देव प्रथम तीर्थंकर थे। जैन धर्म में 23वें एवं 24वें तीर्थंकर ऐतिहासिक पुरुष माने जाते हैं। जैन धर्म के 23वें तीर्थकंर पार्श्वनाथ थे जिन्होंने निग्रंथ सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इनके अनुयायी भी निग्रंथ (बँधनरहित) कहलाते थे।
पार्श्वनाथ महावीर स्वामी से 250 वर्ष पहले हुए। महावीर स्वामी के माता-पिता भी निग्रन्थ सम्प्रदाय के अनुयायी थे।
महावीर स्वामी
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी थे। ये जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी का जन्म 540 ई.पू. अथवा 599 ई.पू. में कुंड ग्राम (बिहार) में हुआ था। इनके बचपन का नाम वर्धमान था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो कुंडग्राम के ज्ञात्रिक वंश के शासक थे।
30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग किया। 12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद बिहार में जम्भिय ग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के किनारे एक शाल वृक्ष के नीचे इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई।
ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी ने अपना पहला धर्मोपदेश राजगृह में बराकर नदी के तट पर विपुलचल पहाड़ी में दिया। महावीर स्वामी का प्रथम भिक्षु उनका दामाद जमालि बना। प्रथम भिक्षुणी चंदना बनीं जो चम्पा नरेश दधिवाहन की पुत्री थीं।
महावीर स्वामी के प्रधान शिष्यों को गणधर कहा जाता था। इनकी संख्या 11 थी। इन 11 गणधरों का उल्लेख आवश्यक निर्मुक्ति एवं आवश्यक चूर्णि नामक ग्रंथों में मिलता है।
लिच्छिवि नरेश चेटक, चम्पा नरेश दधिवाहन एवं मगध सम्राट अजातशत्रु महावीर स्वामी के शिष्य बने। महावीर स्वामी ने प्राकृत भाषा में अपने धर्म का प्रचार किया।
महावीर स्वामी की मृत्यु 72 वर्ष की उम्र में बिहार में पावा के शासक सास्तिपाल के महल में हुई।
निर्वाण प्राप्ति का सिद्धान्त
जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव को अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। कर्मफल से विमुक्ति ही निर्वाण (मोक्ष) है। जैन धर्म में मृत्यु के बाद निर्वाण की प्राप्ति होती है।
जैनधर्म के त्रिरत्न
- सम्यक् शृद्धा/दर्शन- जैन तीर्थंकरों एवं उनके बताये गये मार्गों पर पूर्ण विश्वास करना ही सम्यक श्रद्धा या सम्यक दर्शन है।
- सम्यक् ज्ञान- जीव एवं अजीव के वास्तविक स्वरूप को जानना अर्थात् जैन सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है।
- सम्यक् आचरण/चरित्र- अच्छे कर्मों को करना तथा बुरे कर्मों का त्याग ही सम्यक् आचरण है।
पंचव्रत
महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को पाँच शिक्षाओं के पालन पर बल दिया है।
- सत्य- सत्य बोलना, प्रिय बोलना, धर्मवार्ता करना ही सत्य है।
- अहिंसा- प्राणी मात्र पर दया करना, किसी भी जीव की हिंसा न करना।
- अपरिग्रह- धन का संचय न करना।
- अस्तेय- चोरी न करना।
- ब्रह्मचर्य- संयमपूर्ण जीवन जीना।
पंचव्रतों पहले चार शिक्षायें पार्श्वनाथ द्वारा दी गई हैं। जबकि महावीर स्वामी ने केवल ब्रह्मचर्य को जोड़ दिया। भिक्षुओं को ये 5 शिक्षायें ‘पंचमहाव्रत’ के रूप में हैं अर्थात् कठोरता से इनका पालन करना होगा। श्रावकों (गृहस्थों) के लिए ये 5 शिक्षायें ‘पंचअणुव्रत’ के रूप में है अर्थात् आंशिक रूप से पालन करना है।
जैन धर्म के अनुसार एक भिक्षु में भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सहते हुए तपस्या करने की क्षमता या योग्यता होनी चाहिए। इसे ही ‘परिषा’ कहा गया है।
जैन धर्म में श्रावकों को निर्देश दिया गया है कि यदि वे किसी महान संकट से छुटकारा पाने में असमर्थ हैं तो उन्हें भोजन-पानी का त्याग कर प्राणों का अंत कर देना चाहिए इसे ही जैन धर्म में ‘संल्लेखना’ कहा गया है।
जैन धर्म इस रूप में अनिश्वरवादी है कि वह देवताओं को स्वीकार करता है लेकिन विश्व व्यवस्था में उसका कोई योगदान स्वीकार नहीं करता।
जैन धर्म के अनुसार विश्व शाश्वत है। यह अनेक चक्रो में विभक्त है। प्रत्येक चक्र में दो अवधियाँ हैं- उत्सर्पिणी (विकास की अवधि) और अवसर्पिणी (ह्रास की अवधि)। इन चक्रो में 24 तीर्थंकर सहित 63 शलाकापुरुष (महान पुरुष) निवास करते हैं।
जैन धर्म स्यादवाद के सिद्धांत को स्वीकार किया। स्यादवाद कहने वाले के कथन की एक ऐसी शैली है जिससे कथन का गुणात्मक अभिप्राय प्रकट होता है। असत्य भाषण एवं वैचारिक मतभेदों से बचने के लिए स्यादवाद को जैन धर्म में स्थान दिया गया है।
इन द्रव्यों को अस्तिकाय (जो स्थान घेरता है) एवं अनस्तिकाय (जो स्थान नहीं घेरता) दो भागों में विभाजित किया गया है। अस्तिकाय के अन्तर्गत जीव एवं अजीव आते हैं। अजीव के अन्तर्गत धर्म, अधर्म, पुद्गल एवं आकाश में चार तत्व है। अनस्तिकाय के अन्तर्गत काल आता है। इस प्रकार जैन धर्म के अनुसार जगत का निर्माण कुल छह पदार्थों से माना जाता है।
जैन संघ में प्रथम फूट
जैन संघ से अलग होने वाला प्रथम व्यक्ति महावीर स्वामी का दामाद जमालि था। महावीर स्वामी के ज्ञान प्राप्ति के 12वें वर्ष में जमालि क्रियमाणकृत अर्थात् ‘कार्य प्रारम्भ करते ही कार्य पूरा’ सिद्धान्त के कारण जैन संघ से अलग हो गया।
जैन संघ में विभाजन
हेमचन्द्र द्वारा रचित परिशिष्टपर्वन नामक ग्रंथ से पता चलता है कि मौर्य शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में मगध में 12 वर्षों का अकाल पड़ा। अकाल के समय भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन भिक्षुओं का एक दल मैसूर में श्रवणबेलगोला क्षेत्र में चला गया, जबकि स्थूलभद्र के नेतृत्व वाला जैन साधुओं का दल यहीं रुका रहा। इस प्रकार जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया।
- श्वेताम्बर सम्प्रदाय- स्थूलभद्र के नेतृत्व में उनके अनुयायी श्वेत वस्त्र धारण करने के कारण श्वेताम्बर कहलाये।
- दिगम्बर सम्प्रदाय-भद्रबाहु के नेतृत्व में उनके अनुयायी निर्वस्त्र रहने के कारण दिगम्बर कहलाये।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय में अन्तर
श्वेताम्बर सम्प्रदाय | दिगम्बर सम्प्रदाय |
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इसके प्रवर्तक स्थूलभद्र थे। | इसके प्रवर्तक भद्रबाहु थे। |
ये श्वेत वस्त्र धारण करते थे। | ये निर्वस्त्र रहते थे । |
इनके अनुसार महावीर स्वामी का विवाह हुआ था और उनके एक पुत्री भी थी। | इनके अनुसार महावीर स्वामी अविवाहित थे। |
इनके अनुसार 19 वें तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे। | इनके अनुसार मल्लिनाथ पुरुष थे। |
इनके अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद भी भोजन आवश्यक है। | इनके अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन आवश्यक नहीं है। |
जैन संगीतियाँ
किसी भी धर्म की बिखरी हुई परम्पराओं को एक जगह संकलित करने के उद्देश्य से संगीतियों (धर्माचार्यों का सम्मेलन) का आयोजन किया जाता है।
प्रथम जैन संगीति
- प्रथम जैन संगीति का आयोजन 300 ई. में हुआ था।
- यह संगीति मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हुई थी।
- यह जैन महासभा पाटलिपुत्र में आयोजित हुई।
- इस महासभा के अध्यक्ष स्थूलभद्र थे।
- प्रथम जैन संगीति में जैन धर्म के प्रधान भाग 12 अंगों का संपादन हुआ।
- इस संगीति में जैन धर्म 'दिगंबर' एवं 'श्वेतांबर' दो भागों में बँट गया।
द्वितीय जैन संगीति
- द्वितीय जैन संगीति का आयोजन लगभग 512 ई. में हुआ।
- यह महासभा देवर्षि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में हुई।
- गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर इस का आयोजन किया गया था।
- द्वितीय जैन महासभा में जैन धर्म के ग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया गया।
जैन तीर्थकर एवं उनके प्रतीक चिन्ह
तीर्थंकर का नाम | प्रतीक चिन्ह | तीर्थंकर का नाम | प्रतीक चिन्ह |
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1. ऋषभदेव (आदिनाथ) | वृषभ (बैल) | 2. अजितनाथ | गज (हाँथी) |
3. संभवनाथ | अश्व (घोड़ा) | 4. अभिनंदननाथ | कपि (बंदर) |
5. सुमतिनाथ | क्रौंच (कौवा) | 6. पद्मप्रभु | पद्म (कमल) |
7. सुपार्श्वनाथ | स्वास्तिक | 8. चन्द्रप्रभु | चन्द्रमा |
9. पुष्पदंत (सुविधिनाथ) | मकर (मगरमच्छ) | 10. शीतलनाथ | श्रीवत्स (आशीर्वाद सूचक हाँथ) |
11. श्रेयांसनाथ | गैंडा | 12. वासुपूज्यनाथ | महिष (भैंसा) |
13. विमलनाथ | वाराह | 14. अनंतनाथ | श्येन (गरुड़) |
15. धर्मनाथ | वङ्का | 16. शांतिनाथ | मृग |
17. कुन्थुनाथ | अज | 18. अरनाथ | मीन |
19. मल्लिनाथ | कलश | 20. मुनिसु्नात | कूर्म |
21. नेमिनाथ | नीला कमल | 22. अरिष्टनेमि | शंख |
23. पार्श्वनाथ | सर्पफण | 24. महावीर | सिंह |
जैन साहित्य
जैन साहित्य किसी एक काल की रचना नहीं है। इसका संकलन भिन्न-भिन्न कालों में हुआ। जैन साहित्य में जैन आगम सर्वोपरि है। आगम का अर्थ है सिद्धांत। जैन आगम के अन्तर्गत 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 1 नंदिसूत्र, 1 अनुयोगद्वार एवं 4 मूल सूत्र हैं।
अन्य प्रमुख ग्रंथ
आचारांगसूत्र- इसमें जैन भिक्षुओं के आचरण सम्बन्धी नियम संकलित हैं।
भगवती सूत्र- इसमें महावीर स्वामी के जीवन एवं कृयाकलापों का वर्णन है।
नायाधम्मकथासूत्र- इसमें महावीर स्वामी की शिक्षायें संकलित हैं।
अंतगणदसाओसुत्त- इसमें प्रमुख भिक्षुओं के निर्वाण प्राप्ति का वर्णन है। उपरोक्त सभी ग्रंथ प्राकृत अर्धमागधी भाषा में लिखे गये हैं।
जैनधर्म से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्य
- जैनधर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे।
- जैनधर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ कशी के इक्षवाकु वंशीय राजा अश्वसेन के पुत्र थे।
- महावीर की पत्नी का नाम यशोदा एवं पुत्री का नाम अनोज्जा प्रियदर्शनी था।
- महावीर ने अपना उपदेश प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा में दिए थे।
- महावीर के प्रथम अनुयायी उनके दामाद (प्रियदर्शनी के पति) जामिल थे।
- जैन धर्म के त्रिरत्न- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण हैं।
- जैनधर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं हैं।
- जैनधर्म में आत्मा की मान्यता हैं।
- महावीर पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करते थे।
- जैनधर्म के सप्तभंगी ज्ञान के अन्य नाम स्यादवाद व अनेकांतवाद हैं।
- खुजराहो में जैन मंदिरो का निर्माण चंदेल शासको द्वारा किया गया।
- जैन तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र हैं।